Santmat History

संतमत का इतिहास
ऋग्वेद, छान्दोग्योपनिषद् और तैत्तिरीयोपनिषद् में सत् शब्द का प्रयोग परमात्मा और संत के लिए हुआ है। संत शब्द श्रीमद्- भगवद्गीता, वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, रामचरितमानस, महाभारत आदि सद्ग्रंथों में पाया जाता है। इन्हीं संतों को सद्ग्रंथों में ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, ऋषि, मुनि आदि भी कहा गया है। संत शब्द का प्रयोग प्रायः किसी सदाचारी पवित्रत्मा महापुरुषों के लिए किया गया है। वस्तुतः संत उनको कहा गया है, जो अंतस्साधना के द्वारा जड़-चेतन की ग्रंथि को खोलकर सभी संशयों को निर्मूल नाश कर परम प्रभु परमात्मा का साक्षात्कार कर चुके हैं। संत शब्द संस्कृत के सन् शब्द में अस् धातु की संधि से बना हुआ सत् रूप हो गया है। जिसका अर्थ सदा एकरस रहनेवाला परमात्मा होता है। सभी परमात्म- प्राप्त महापुरुषों का, शरीर की नश्वरता, माया की असत्यता, जीव की नित्यता, ईश्वर की शाश्वतता आदि विषयक विचार एक समान मिले रहने के कारण ही कहा गया कि सभी संतों का एक ही मत है। वही एक मत संतमत है। जबसे इस धराधाम पर संतों का प्रादुर्भाव हुआ, तब से संतमत है। इसीलिए संतमत को परम प्राचीन मत कहा गया है। संतमत किसी संकीर्ण सीमा में आबद्ध नहीं है। किसी भी देश या जाति के परमात्म-प्राप्त महापुरुषों का विचार संतमत है।
भगवान ऋषभदेवजी महाराज, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, आचार्य शंकर, मत्स्येन्द्रनाथजी महाराज, गोरखनाथजी महाराज, स्वामी रामानंदजी महाराज, संत कबीर साहब, गुरु नानक साहब, संत भीखा साहब, संत पलटू साहब, संत जगजीवन साहब, संत दरिया साहब, संत शिवनारायण स्वामी, संत नामदेवजी महाराज, समर्थ रामदासजी महाराज, गो0 तुलसीदासजी महाराज आदि जितने महापुरुष हो गये; इन सभी महापुरुष ने देश-काल के अनुसार संसार के लोगों को अपना-अपना उपदेश दिये। यही उपदेश उन महापुरुषों के समय में अथवा उनके पीछे कोई विशेष कारणवश इन्हीं महापुरुषों के शिष्यों द्वारा अलग-अलग पंथ, संप्रदाय और मत का रूप ले लिया। जैसे- जैन मत, बौद्ध मत, नाथ पंथ, रामानंदी पंथ, कबीर पंथ, नानक पंथ, दरिया पंथ, शिवरामी पंथ आदि।
वि0 संवत् 1820 में इस भारत की पुण्यमयी धरती पर संत तुलसी साहब का प्रादुर्भाव हुआ। इन्होंने अलीगढ़ जिला के हाथरस नामक स्थान में रहकर अंतस्साधना किये और यहीं से जीव कल्याण निमित्त उपदेश करना भी प्रारंभ कर दिये। ये बहुत चमत्कारी महापुरुष हुए। सुरत विलास नामक पुस्तक में लिखा है-ये देशाटन करने के समय बहुत चमत्कार दिखाये हैं। बहुत चमत्कारों में जैसे रोगी को आरोग्य कर देना, मुर्दों को जिला देना, अंधों को आँखें, निर्धन को धन और बाँझ को संतान दे देना इत्यादि। इनके उपदेशों में अंतस्साधना के द्वारा जीव का परम कल्याण बताया गया है। इन्होंने पूर्व के सभी संत-महापुरुषों के उपदेशों को एक समान मानकर कहा-‘जो सभी संतों ने कहा है, वही मैं कह रहा हूँ।’ लगता है इसीलिए संत तुलसी साहब को प्रायः सभी लोग संतमत-सत्संग के संस्थापक मानने लगे। इन्होंने पूर्व के सभी संतों के उपदेशों के अनुसार अपना उपदेश देकर बहुत-से हिन्दू-मुस्लिमों को अपना अनुयायी बना लिये। ये विशेषकर हाथरस में ही रहा करते थे और हाथरस में ही 80 साल की अवधि बिताकर अपने आत्मस्वरूप में लीन भी हुए। अभी हाथरस में इनकी समाधि बनी हुई है। बहुत-से लोग समाधि का दर्शन करने के लिए जाते हैं। इनके द्वारा आध्यात्मिक पुस्तक की रचना पप्रसागर दो भागों में, घटरामायण दो भागों में, शब्दावली दो भागों में और रत्नसागर हैैं। जिसके पढ़ने-सुनने से आध्यात्मिक बातों की जानकारी और अंतःसाधना करने की प्रेरणा मिलती है। इनकी बहुत-सी वाणियाँ प्रातः स्मरणीय आराध्यदेव संत सद्गुरु महर्षि मे ँही ँ परमहंसजी महाराज ने अपनी रचित पुस्तक सत्संग-योग में दी हैं। सभी संतों की वाणियों को मिलाकर उपदेश करनेवाले संत तुलसी साहब की वाणी में है-
जग बेहोश बूझै नहीं संतमते की बात ।।
संतमते की बात लात जम ताते मारै ।
चोटी धरि धरि काल पकड़ि चौरासी डारै ।।
मद माया के माहिं बात चित्त नेक न लावै ।
ऐसा बड़ा अयान जानकर ज्ञान न भावै ।।
तुलसी बूझ विचार ले अंत किया न साथ ।
जग बहोश बूझै नहीं संतमते की बात ।।
अब पंथा पंथी दरसाऊँ । पूछै पंथ न जानै गाऊँ ।।
पंथ नाम मारग को होई । सो पंथी बूझा नहिं कोई ।।
गाय बजाय खंजरी पीटी । गावत मुख में पड़ि गई सीठी ।।
जो संतन कर शब्द विचारा । सूझै पंथ वार अरु पारा ।।
शब्द सन्धि कछु और बतावै । यह नहिं समझ सोध मन लावै ।।
गुरुवाणी संतन की बूझै । निर्मल नैन आँखि से सूझै ।।
गुरु चेला मिलि पंथ चलावा । संत पंथ की राह न पावा ।।
(रत्नसागर से)
इस आधुनिक काल के संत तुलसी साहब के प्रधान शिष्य, संत शिवदयाल स्वामी उत्तरप्रदेश के आगरा में हुए थे। अपने गुरु संत तुलसी साहब की ही तरह संतमत-सत्संग किया करते थे। संत तुलसी साहब के एक नजदीकी शिष्य श्रीगिरिधारी लालजी थे। जब कभी संत तुलसी साहब कहीं बाहर सत्संग करने के लिए जाते थे, तो श्रीगिरिधारी लालजी भी इनके साथ-साथ सत्संग करने जाते थे। एक बार किसी कारणवश श्रीगिरिधारी लालजी को अपने गुरु से विदा होकर हाथरस से आगरा आना पड़ा। अब ये आगरा में ही रहकर, संत शिवदयाल स्वामी के साथ संतमत-सत्संग करने लगे। संत सद्गुरु बाबा देवी साहब, जिनका नाम उस समय श्रीदेवी प्रसादजी था, वे भी डाक विभाग में काम करते हुए इन्हीं लोगों के साथ सत्संग किया करते थे।
संत शिवदयाल स्वामी के नजदीकी सेवक रायबहादुर शालिग्राम साहबजी थे। जब संत शिवदयाल स्वामीजी वृद्ध हो गये, तो एक दिन अवसर पाकर रायबहादुर शालिग्राम साहब ने उनसे सविनय निवेदन किया-‘हुजूर! मैं आपके नाम पर एक मत चलाना चाहता हूँ, जिसका नाम राधास्वामी संतमत रखूँगा।’ संत शिवदयाल स्वामीजी की धर्मपत्नी का नाम राधा था। रायबहादुर शालिग्राम साहब ने यही कहकर निवेदन किया था कि माताजी का नाम और आपके नाम का स्वामी लेकर ‘राधास्वामी संतमत’ नाम रखूँगा और इसी नाम से संतमत-सत्संग का प्रचार-प्रसार करूँगा। पहले तो उन्होंने आदेश नहीं दिया; लेकिन आत्मस्वरूप में लीन होने के पहले अपने छोटे भाई प्रतापनारायणजी को कह दिये कि शालिग्राम की इच्छा है, मेरे नाम पर मत चलाने की। मेरे बाद संतमत के साथ वह नाम भी चलने देना। अंततोगत्वा वही हुआ।
संत शिवदयाल स्वामी के शरीर छोड़ने के बाद वहाँ के दूसरे आचार्य रायबहादुर शालिग्राम साहब हुए। ये पहले डायरेक्टर जेनरल ऑफ पोस्ट ऑफिस रह चुके थे। लगता है इनको राधास्वामी नाम बहुत अच्छा लगता होगा। यह अच्छा लगना अपने गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा का प्रतीक समझना चाहिए। संत शिवदयाल स्वामी के बाद रायबहादुर शालिग्राम साहब राधास्वामी संतमत-सत्संग कहकर प्रचार-प्रसार करने लगे।
ऐसा अनुमान लगता है कि संतमत-सत्संग में कोई और नाम जोड़कर उसमें परिवर्तन या परिवर्द्धन कर देना बाबा साहब को अनुकूल नहीं लगा होगा, इसीलिए लाचार होकर यह कहना पड़ा होगा कि मैं तो संतमत-सत्संग कहकर प्रचार करूँगा। संयोग से ईश्वर की ऐसी मौज हुई कि इनकी बदली भी आगरा से मुरादाबाद के लिए हो गयी। अब ये आगरा से मुरादाबाद आ गये और यहीं से संतमत-सत्संग का प्रचार-प्रसार करने लगे।
इनकी यही धारणा थी कि सभी लोग संतमत को अच्छी तरह समझें और उसके अनुसार अंतस्साधना करके अपना परम कल्याण कर लें। इनका उद्घोष था कि ‘चिता में जलने और कब्र में दाखिल होने के पहले मोक्ष प्राप्त कर लो।’ ये कहा करते थे कि संतमत में दुनिया को अनादि नहीं मानते। यह कभी पैदा हुई है और इसका कभी नाश भी होगा। जब कभी नाश या प्रलय या कयामत होगी, तो उस जगह तक का नाश होना माना है, जहाँ तक कि कोई शकल या रूप है। मतलब यह कि जहाँ तक कोई लोक या कमल और ईश्वर या कमलों का कोई मालिक है, एक दिन सबका नाश होगा।
सन्तों का आम उपदेश यह है कि अन्दर या बाहर जो कुछ कि निगाह में आता है, जहाँ तक कि रूप है, कुल मायावी और नाशवान है, और इसके बाद एक ऐसी जगह है कि न तो वह कभी पैदा हुई है और न कभी नाश होती है। यही सत्य है । इसका नाश नहीं होता। इसका न कुछ रंग है और न कुछ रूप है और न कोई खास नाम है; लेकिन यह कुछ है, जो ख्याल और समझ में आता है, इसलिए वह भी नाम के शब्द से बोले जाने का अधिकारी है। जीव इसका अंश है; क्योंकि इसका भी नाश नहीं होता। इसको उसमें मिलाने को सत्संग अन्तरी कहते हैं और बाहर में उस जगह को कहते हैं, जहाँ परमार्थी बातचीत करने को मनुष्य जमा होते हैं। इनके दस्तूर और कायदे के मुआफिक जो लोग अभ्यास करते हैं, उनको साधु कहते हैं, और जिन्होंने कि अपने को उस लोक में पहुँचाया है, जहाँ कि वह सत्य है, सन्त कहलाते हैं।
सद्गुरु बाबा देवी साहब सब किन्हीं को स्वावलंबी जीवन बिताने का उपदेश दिया करते थे और वे स्वयं स्वावलंबी जीवन बिताते थे। वे कभी अकेले, कभी मंडली के साथ सत्संग करने के लिए जाते थे। इनके द्वारा संतमत-सत्संग का प्रचार जम्मू-कश्मीर, लाहौर, उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार आदि प्रांतों में हुआ। सभी प्रांतों की अपेक्षा बिहार प्रांत में अधिक हुआ। ये साल में एक बार बिहार जरूर आ जाते थे और दस-पंद्रह दिन तक ठहरकर संतमत-सत्संग का प्रचार करके फिर उत्तरप्रदेश मुरादाबाद के लिए प्रस्थान कर जाते थे। इनके प्रत्येक साल आने के कारण इनके उपदेश से प्रभावित होकर कुछ लोग संतमत के अनुयायी बन गये।
ये संतमत-सत्संग का प्रचार-प्रसार करते हुए 68 साल की अवधि बिताकर मुरादाबाद में सन् 1919 ई0 के 19 जनवरी, रविवार के दिन ‘दुनियाँ वहम है, अभ्यास करो’-यह अंतिम उपदेश देकर अपने आत्मस्वरूप में लीन हो गये। इनकी समाधि मुरादाबाद में बनी हुई है, बहुत-से लोग दर्शन करने के लिए जाते हैं।
इनके द्वारा रचित पुस्तक-शरप़फ़े इस्लाम और बाल का आदि और उत्तर का अंत है। शरप़फ़े इस्लाम पुस्तक में मन की कुर्वानी को असली कुर्वानी कहा गया है और बाल का आदि और उत्तर का अंत नामक पुस्तक में कुछ अंतस्साधना की बात बतायी गयी है।
संत सद्गुरु बाबा देवी साहब के सभी शिष्यों में एक प्रधान शिष्य संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज बिहार प्रांत के पूर्णियाँ जिलान्तर्गत सिकलीगढ़-धरहरा में हुए। ये भी संत तुलसी साहब और सद्गुरु बाबा देवी साहब की तरह संतमत-सत्संग किया करते थे। इनके द्वारा ही विश्वप्रसिद्ध आश्रम भागलपुर (बिहार) में संतमत-सत्संग का विशाल केन्द्रीय स्थान बना। यह स्थान गंगा किनारे में है। यहाँ एक प्राचीन गुफा भी है। इसी प्राचीन गुफा में 18 महीने कठोर साधना करके सद्गुरु ने आत्म-साक्षात्कार किये थे। इसी गुफा के नाम पर इस स्थान का नाम कुप्पाघाट पड़ा है। यहाँ हजारों की संख्या में दर्शनार्थी लोग आते ही रहते हैं। अभी इस आश्रम को महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट के नाम से सारे संसार के लोग जानते हैं।
संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का उपदेश सभी लोगों को चुम्बक की तरह खींच लेता था; क्योंकि इनकी वाणी में परमात्मीय गुण ओत-प्रोत था। कभी-कभी इनके द्वारा कुछ चमत्कार भी हो जाया करता था। जैसे फाँसी की सजा भोगनेवाले व्यक्ति का इनकी शरण में आ जाने से उस सजा से बच जाना; असामाजिक लोगों के हाथ से मरनेवाला व्यक्ति इनके शरण में आ जाने से, उससे बच जाना; एक्सीडेंट से बाल-बाल बच जाना; प्राण छूटते-छूटते बच जाना, भारी रोग से मुक्त हो जाना, पागल व्यक्ति का ठीक हो जाना, पुत्र-प्राप्ति की कामना पूर्ण हो जाना आदि चमत्कार हैं। जो इस पुस्तक में विस्तार से दर्शाये गयेे है।
इनके द्वारा संतमत का प्रचार लगभग पूरे बिहार प्रांत में, इसके बाद झारखंड, बंगाल, उड़ीसा, असम, उत्तरप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, हिमाचलप्रदेश, नेपाल, अमेरिका, इंगलैंड, रूस, स्वीडेन, श्रीलंका आदि प्रांतों और देशों में हो गया है। ये संतमत-सत्संग का
प्रचार करते थे; लेकिन सब किन्हीं को दीक्षा नहीं देते थे। बहुत ठोक बजाकर दीक्षा देते थे। प्रायः दीक्षा लेनेवाले व्यक्ति को साक्षी की जरूरत पड़ती थी। इसके साथ-साथ दीक्षार्थी को संतमत का सिद्धांत भी याद करना पड़ता था, तब कहीं उनको दीक्षा मिलती थी।
एक बार पटना हाई कोर्ट के एक वकील साहब आश्रम आये और पूज्य महर्षिजी को प्रणाम कर पहले अपना परिचय दिये कि ‘हुजूर! हम पटना हाई कोर्ट के वकील हैं।’ इसके बाद वे निवेदन करने लगे कि ‘हुजूर! आपका नाम सुनकर हम आपके पास आये हैं। आप हमें दीक्षा दे दें।’ इसपर महर्षिजी बोले, ‘संतमत के सिद्धांत में झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार; इन पंच पापों के करने की मनाही की गयी है। संतमत में दाखिल होने के लिए आपको झूठ नहीं बोलना होगा।’ इसपर वकील साहब बोले, ‘हुजूर! हमारी पेशा ही है झूठ बोलना। झूठ नहीं बोलेंगे, तो वकालत ही नहीं चलेगी। हुजूर! केवल एक झूठ बोलने की छूट दे दी जाए।’ पूज्य महर्षिजी बोले, ‘झूठ बोलनेवाले को दीक्षा नहीं दी जाती है।’ उनके बहुत निवेदन करने पर भी उनको दीक्षा नहीं मिली। लाचार होकर उनको बिना दीक्षा लिये ही पटना लौट जाना पड़ा।
इतनी कसौटी के बावजूद भी इनके द्वारा 81,000 (इक्यासी हजार) से अधिक लोग संतमत के अनुयायी बने। इन्होंने अपने उपदेश में प्रकृति के निमित्त कहा-प्रकृति को भी अनाद्या कहा गया है। सो इसलिए नहीं कि परम प्रभु सर्वेश्वर की तरह यह भी उत्पत्तिहीन है; परन्तु इसलिए कि इसकी उत्पत्ति के काल और स्थान नहीं हैं; क्योंकि इसके प्रथम नहीं; परन्तु इसके होने पर ही काल और स्थान वा देश बन सकते हैं। यह परम प्रभु की मौज से परम प्रभु में ही प्रकट हुई, अतएव परम प्रभु में ही इसका आदि है और परम प्रभु देशकालातीत हैं। और वे अनादि के भी आदि कहलाते हैं। प्रकृति को अनादि सांत भी कहते हैं। इनके द्वारा रचित पुस्तक सत्संग-योग भाग चार, वेद-दर्शन-योग, श्रीगीता-योग-प्रकाश, श्रीरामचरितमानस-सार सटीक, संतवाणी सटीक, मोक्ष दर्शन, महर्षि मे ँही ँ पदावली, महर्षि मे ँही ँ वचनामृत, विनय-पत्रिका-सार सटीक, भावार्थ-सहित घटरामायण पदावली, ईश्वर का स्वरूप और उसकी प्राप्ति, ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर-भक्ति है। इन पुस्तकों में ईश्वर का स्वरूप, माया, जीव, अंतस्साधना की बातें भरपूर मिलती हैं।
संतमत का ज्ञान बतलाता है, ‘सबका ईश्वर एक है।’ उनका कोई रंग-रूप नहीं है। वे सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे हैं। उनका आदि, मध्य और अंत नहीं है। कोई ऐसी वस्तु या कोई ऐसा स्थान नहीं, जहाँ वे नहीं हैं। वे सब जगह आकाश की तरह सर्वव्यापक हैं। इसीलिए उनको अनंत कहा गया है। अगर अनंत दो माना जाए, तो दोनों ससीम हो जाएँगे। ईश्वर ससीम नहीं, असीम हैं। संतमत बतलाता है, ऐसे ईश्वर को कोई इन्द्रियों के द्वारा नहीं पहचान सकता। इन्द्रियों के द्वारा जो पहचाना जाता है, वह ईश्वर की माया की पहचान होती है। भले ही वह कितना ही दिव्य रूप क्यों न हो। ईश्वर को इन्द्रियातीत बताया गया है। संतमत बतलाता है, अगर ऐसे ईश्वर को पहचानना चाहते हैं, उनमें मिलकर एकमेक होना चाहते हैं, तो उन्हें सब इन्द्रियों-हाथ, पैर, मुँह, लिंग, गुदा; आँख, कान, नाक, जीभ, चमड़ा; मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार से बिल्कुल अलग होना होगा।
संतमत बतलाता है, इन इन्द्रियों से अलग होने के लिए बाहर में कोई यत्न करना व्यर्थ है। यह काम अंतस्साधना के द्वारा अपने शरीर के अंदर-अंदर चलने से होता है। दोनों आँखों के नीचे के भाग को पिंड और ऊपर के भाग को ब्रह्मांड कहते हैं। दोनों भौहों के ठीक बीच में पिंड से ब्रह्मांड में जाने का रास्ता है और वह रास्ता अत्यन्त झीना है। उसपर कोई पाँव से नहीं चल सकता, उसपर सुरत चलती है। इसके लिए सिमटाव करना पड़ता है। सिमटाव से ऊर्ध्वगति, ऊर्ध्वगति से आवरण भेदन होता है। इसके लिए सर्वप्रथम परम प्रभु परमात्मा के किसी वर्णात्मक नामों में से एक नाम को जपने की सही कला से जपना होता है। और गुरु के बताये हुए परमात्मा के किसी स्थूल विभूति रूप का मानस ध्यान करना पड़ता है। परमात्मा की सृष्टि में जो विशेष तेजवान, विभूतिवान और उत्तम धर्मवान हैं, उन्हीं को विशेष विभूतियाँ कही गयी हैं। मानस जप, मानस ध्यान; इन दोनों क्रियाओं को क्रमशः मनोयोगपूर्वक करने से ब्रह्मांड में प्रवेश करने की शक्ति आ जाती है।
संतमत बतलाता है कि पिंड से ब्रह्मांड में प्रवेश करने के लिए दृष्टि की दोनों धारों को अर्थात् बायीं आँख की बायीं धार और दायीं आँख की दायीं धार; इन दोनों धाराओं को मिलाना पड़ता है। अर्थात् जोड़ना पड़ता है। इस क्रिया को दृष्टियोग कहा गया है। इस क्रिया के करने में डीम और पुतली को उलटाना नहीं पड़ता है। इसके साथ-साथ आँखों पर किसी तरह जोर भी नहीं लगाना पड़ता है। ऐसा करने से आँखें खराब भी हो सकती हैं। इस क्रिया के करने में दिशाओं को नहीं देखना पड़ता है। दिशायें कुल दस हैं। यथा-पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, इनके चारो कोणें और ऊपर तथा नीचे; ये दस दिशायें हैं। आँख खोलकर देखने से सामने कोई दिशा अवश्य रहती है। आँख बंद कर देखने से पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, इनके चारो कोणों का ज्ञान नहीं रहता है; लेकिन ऊपर-नीचे का ज्ञान रह जाता है। यह ऊपर-नीचे भी नहीं रहे, यही दिशाओं को नहीं देखते हुए देखना है। यही भेद पाने की बात है। इसी को ब्रह्म दीक्षा भी कहते हैं। जो इस क्रिया को सीखकर करते हैं, करने में समय लगाते हैं, संयम में रहकर साधना करते हैं, तभी उन्हें सफलता मिलती है। इस क्रिया को तन्मयता के साथ करने से दृष्टि की दोनों धारें आपस में टकराने लगती हैं। जिस समय दृष्टि की धार टकराने लगती है, उस समय इस क्रिया के करनेवाले साधक को अपने अंदर बिजली की चमक जैसा दृश्य देखने में आने लगता है। अगर साधक उस चमक को देखते रहता है, तो उस साधक की दृष्टि की धार एक हो जाती है अर्थात् जुट जाती है। जैसे ही दृष्टि की धार जुटती है, उसी क्षण वे साधक सामने में श्वेत विन्दु देखते हैं।
कहा गया है, ‘दो रेखाओं के मिलन को विन्दु कहते हैं।’ उसी श्वेत विन्दु को परम विन्दु कहा गया है। उसी को भगवान श्रीकृष्ण ने अणोरणीयाम् कहा है। उस विन्दु को परमात्मा का चरण भी कहा गया है। उसी परम विन्दु से स्थूल संसार की रचना बतायी गयी है। उस परम विन्दु को देखनेवाला साधक उसी परम विन्दु के सहारे सूक्ष्म मंडल में प्रवेश कर वहाँ के विविध दृश्यों को देखने लगता है। अंदर की अनुभूति सब किन्हीं को एक तरह की नहीं होती है। इन अनुभूतियों को देखने के समय साधक को अपने पाँच कर्मेन्द्रियाँ-हाथ, पैर, मुँह, लिंग, गुदा और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ-आँख, कान, नाक, जीभ, चमड़ा का ज्ञान तो नहीं रहता है; लेकिन चार अंतःकरण-मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार; ये चार इन्द्रियाँ रह जाती हैं। इन्हीं चार अंतःकरण की इन्द्रियों के साथ रहकर अंदर की अनुभूतियाँ देखी जाती हैं। जहाँ देखी जाती है, वहीं कभी-कभी साधक को शब्द भी सुनायी देता है। यहीं पर साधक की दिव्य दृष्टि खुल जाती है।
संतमत बतलाता है, इतने में ही जीव का परम कल्याण नहीं हो जाता। परम कल्याण के लिए सुरत-शब्द-योग की साधना करनी पड़ती है। इस क्रिया के करने में आँख, कान और मुँह-तीनों बंद करना पड़ता है। इस साधना में साधक को अपने अंदर में बहुत तरह के शब्द सुनायी पड़ने लगते हैं, जिसको महापुरुषाें ने अनहद शब्द कहा है। उन अनहद शब्दों में एक ऐसा शब्द है, जिसका केन्द्र परम प्रभु परमात्मा बतलाया गया है। उसी शब्द को आदिशब्द, सारशब्द, स्फोट, उद्गीथ, प्रणवध्वनि, रामनाम, ॐ आदि कहा है। वही शब्द जीव को पीव में मिलाकर आवागमन के चक्र से मुक्त कराता है। संतमत में यह साधन सर्वश्रेष्ठ है। इसीलिए इस शब्द को महापुरुषों ने नमस्कार किया है। वह शब्द कैसे पकड़ा जाएगा, इसके लिए संतमत बतलाता है, किन्हीं शब्द अभ्यासी महापुरुष के पास जाकर उनसे उस शब्द को पकड़ने की युक्ति सीखनी होती है और तन्मयता के साथ अभ्यास करना होता है। इसी सुरत-शब्द-योग की साधना की सफलता में आत्मदृष्टि खुलती है, तब जीव अपनी पहचान कर, पीव में मिलकर एकमेक होकर आवागमन के चक्र से सदा के लिए मुक्त होता है। अंतस्साधना में सफलता प्राप्त करने के लिए संतमत बतलाता है कि इसके लिए सदाचार, शिष्टाचार और शुच्याचार का पालन करना अत्यन्त आवश्यक है। इन सब बातों की जानकारी और प्रेरणा लेने के लिए संतमत का सत्संग करते रहना चाहिए।
संतमत में अहिंसा को परमो धर्मः बताया गया है। परम कल्याण चाहनेवाले व्यक्ति को हिंसा का काम नहीं करना चाहिए। मांस, मछली, अंडा खाने से खास तरह से हिंसा हो जाती है। हिंसा-निषेध के संबंध में मुनस्मृति में कई तरह से लिखा है-
नाकृत्वा प्राणिना हिंसा मांसमुत्पद्यते क्वचित् ।
न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ।।48।।
अर्थात् जीवों की हिंसा-बिना मांस प्राप्त नहीं होता और जीवों की हिंसा स्वर्ग-प्राप्ति में बाधक है; अतएव मांस-भक्षण कदापि नहीं करना चाहिए।।48।।
अनुमन्ता वि}ासिता निहन्ता क्रय विक्रयी ।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादक}चेति घातकः ।।51।।

अर्थात् 1- प}ाुवध की आज्ञा प्रदान करनेवाला, 2- }ास्त्र से मांस काटनेवाला, 3- मारनेवाला, 4- बेचनेवाला, 5- मोल लेनेवाला, 6- मांस पकानेवाला, 7- परोसनेवाला, 8- खानेवाला; ये आठो घातक, हिंसा करनेवाले ही कहलाते हैं।
स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति ।
अनभ्यर्च्य पितृन्देवांस्ततोऽन्यो नास्त्यपुण्य कृत् ।।52।।
अर्थात् जो मनुष्य दूसरे के मांस द्वारा अपने मांस को बढ़ाने की इच्छा मात्र करते हैं, उससे अधिक दूसरा पापी नहीं है।
मांस भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहादम्यहम् ।
एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ।।55।।

अर्थात् मांस पद का वास्तविक तात्पर्य महर्षियों ने यही बतलाया है कि जिस जीव का मांस भक्षण करेंगे, वही जीव अन्य जन्म में हमारे मांस को भी भक्षण करेगा। एतदर्थ मांस-भक्षण नहीं ही करें, यही सर्वोत्तम है।
न मांस भक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ।।
अर्थात् मांस-भक्षण करने, मद्य (शराब आदि) पीने तथा मैथुन करने में प्रायः जीवों की प्रवृत्ति है और अज्ञानवश इसमें दोष नहीं मानते हैं; परन्तु इन सबका परित्याग महाफल देनेवाला है।
संतमत उस आचरण को बतला देता है, जिसपर चलकर जीव का यह लोक और परलोक दोनों बनता है और अंत में उसका परम कल्याण भी हो जाता है। संतमत के संबंध में कितना भी कुछ कहा जाय या लिखा जाय, वह थोड़ा ही होगा। अतः परम कल्याण चाहनेवाले व्यक्ति को संतमत अर्थात् संतों के कथनानुसार चलना चाहिए।
संत वचन वह सुधा, देव भी जिसके सदा भिखारी ।
संत वचन वह धन है, जिसका नर प्रधान अधिकारी ।।1।।
मर्त्य से अमर बन जाता जिससे, वह संजीवन रज है ।
संत वचन सब भव रोगों का, रामवाण भेषज है ।।2।।
वेद शास्त्र अनुभूति तपस्या का जिसमें संचय है ।
संतों का वर वरद वचन वह मंगलमय निर्भय है ।।3।।
क्यों बैठा कर्त्तव्य मूढ़ नर बन चिंता का वाहन ।
संत वचन के सुधा सिंधु में कर संतत अवगाहन ।।4।।
दूर असत के कर सतपथ की ओर लगानेवाला ।
और मृत्यु से हटा अमरता तक पहुँचानेवाला ।।5।।
तम से परे ज्योति के जग में होता जो जगमग है ।
सच्चिन्मय उस परम धाम का संत वचन शुचि मग है ।।6।।
कौन बताये संतों की वाणी में कितना बल है ।
दासी सुत देवर्षि बन गया जीवन हुआ सफल है ।।7।।
उसी संत के प्रवचन ने यह चमत्कार दिखलाया ।
दैत्य वंश में देवोपम प्रीांद प्रगट हो आया ।।8।।
अगणित बार संतवाणी ने निज प्रभाव प्रगटाया ।
मान उसे बालक ध्रुव ने हरि का पद पाया ।।9।।
एक लुटेरा था जो मन से मान संत की वाणी ।
वाल्मीकि बन गया आदि कवि भुवन विदित विज्ञानी ।।10।।

इस पवित्रतम भारतभूमि पर सदा से बडे़-बड़े दिव्यात्माओं महात्माओं, ऋषियों, मुनियों, संतों, योगियों, भक्तों एवं ज्ञानियों का प्रादुर्भाव होते आया है और यह अविचल प्रवाह आगे भी होता ही रहेगा, ऐसा महापुरुषों का कथन है; क्याेंकि इनके बिना संसार का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। संत कबीर साहब का वचन है-
आग लगी संसार में, चुइ चुइ पडे़ अंगार ।
जौं संत न होते जगत में, तो जर जाता संसार ।।
साध वृक्ष सतनाम फल, शीतल शब्द विचार ।
जग होते साध नहीं, जर जाता संसार ।।
साभार (अपने गुरु की याद में)